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________________ १४२ -* सम्यग्दर्शन मानता है तथापि चारित्रकी अपेक्षासे अपूर्ण पर्याय होनेसे तृणतुल्य मानता है, अर्थात् वह यह जानकर कि अभी अनन्त अपूर्णता विद्यमान है, स्वभावकी स्थिरताके प्रयत्नसे उसे टालना चाहता है। ज्ञानकी अपेक्षासे जितना राग है उसका सम्यग्दृष्टि ज्ञाता है। किन्तु रागको निर्जरा अथवा मोक्ष का कारण नहीं मानता और ज्यों ज्यों पयायकी शुद्धता बढ़ानेपर राग दूर होता जाता है त्यों त्यों उसका ज्ञान करता है । इसप्रकार श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र इन तोनोंकी अपेक्षासे इस स्वरूपको समझना चाहिये। कौन प्रशंसनीय है ? इस जगतमें जो आत्मा निर्मल सम्यग्दर्शनमें अपनी o बुद्धि निश्चल रखता है वह, कदाचित् पूर्व पाप कर्मके उदयसे । 0 दुःखी भी हो और अकेला भी हो तथापि, वास्तवमें प्रशंसनीय । है। और इससे विपरीत, जो जीव अत्यत आनंदके देने वालेऐसे सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसे वाह्य है और मिथ्यामार्ग में स्थित है-ऐसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य भले ही अनेक हों और वर्तमानमें शुभकर्मके उदयसे प्रसन्न हों तथापि वे प्रशंसनीय नहीं हैं। इसलिये भव्यजीवोंको सम्यग्दर्शन धारण करनेका निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। [ पद्मनन्दि-देशव्रतोद्योतन अ० २]
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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