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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१४१ होती है उसे दृष्टिकी अपेक्षाने वह अपनी नहीं मानता। ज्ञानकी अपेक्षासे वह यह जानता है कि अपने पुरुषार्थकी अशक्तिके कारण राग होता है। और चारित्रकी अपेक्षासे उस रागको विष मानता है, दुःख-दुःख मालूम होता है । इसप्रकार दर्शन-ज्ञान और चारित्रमेंसे जब दर्शनकी मुख्यतासे बात चल रही हो तब सम्यग्दृष्टिके भोगको भी निर्जराका कारण कहा जाता है। स्वभाव दृष्टिके बलसे प्रति समय उसकी पर्याय निर्मल होती जाती है अर्थात् वह प्रतिक्षण मुक्त ही होता जाता है । जो राग होता है उसे जानता तो है किन्तु स्वभावमें उसे अस्तिरूप नहीं मानता और इस मान्यताके बल पर ही रागका सर्वथा अभाव करता है। इसलिये सच्ची दृष्टिकी अपार महिमा है।
सच्ची श्रद्धा होने पर भी जो राग होता है वह राग चारित्रको हानि पहुंचाता है परन्तु सच्ची श्रद्धाको हानि नहीं करता, इसलिये श्रद्धाकी अपेक्षा से तो सम्यग्दृष्टिके जो राग होता है वह बंधका कारण नहीं, किंतु निर्जरा का ही कारण है-ऐसा कहा जाता है। किन्तु श्रद्धाके साथ चारित्रकी अपेक्षाको भूल नहीं जाना चाहिये।
चारित्रकी अपेक्षासे छठे गुणस्थानवर्ती मुनिकी शुभ वृत्तिको भी विष कहा है तब फिर सम्यग्दृष्टिके भोगके अशुभभावकी तो बात ही क्या है ? अहो । परम शुद्ध स्वभावके भानमें मुनिकी शुभ वृत्तिको भी जो विष मानता है वह अशुभ भावको क्यों कर भला मान सकता है ? जो स्वभावके भानमें शुभवृत्तिको भी विष मानता है वह जीव स्वभावके बलसे शुभ वृत्ति को तोड़कर पूर्ण शुद्धता प्रगट करेगा, परन्तु वह अशुभको तो कदापि आदरणीय नहीं मानेगा।
सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धाकी अपेक्षासे तो अपनेको संपूर्ण परमात्मा ही