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-* सम्यग्दर्शन (२८) श्रद्धा-ज्ञान और चारित्रकी भिन्न
भिन्न अपेक्षायें
सम्यग्दर्शन की परम महिमा है। दृष्टिकी महिमा बतानेके लिये सम्यग्दृष्टिके भोगको भी निर्जराका कारण कहा है। समयसार गाथा १६३ में कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव जिन इन्द्रियोंके द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यका उपभोग करता है वह सव निर्जराका निमित्त है और उसी में मोक्ष अधिकारमें छठे गुणस्थानमें मुनिके जो प्रतिक्रमणादिकी शुभवृत्ति उद्भूत होती है उसे विष कुम्भ कहा है । सम्यग्दृष्टिकी अशुभ भावनाको निर्जराका कारण और मुनिकी शुभभावनाको विष कहा है। इसका समन्वय क्यों कर हो सकता है।
जहाँ सम्यग्दृष्टिके भोगकी निर्जराका कारण कहा है वहाँ यह कहने का तात्पर्य नहीं है कि भोग अच्छे है किन्तु वहाँ दृष्टिकी महिमा वताई है। अबंध स्वभावकी घष्टिका वल वधको स्वीकार नहीं करता उसकी महिमा वताई गई है अर्थात् दृष्टिकी अपेक्षासे वह बात कही है । जहॉ मुनिकी व्रतादि की शुभ भावनाको विष कहा है वहाँ चारित्रकी अपेक्षासे कथन है। हे मुनि । तूने शुद्धात्म चारित्र अंगीकार किया है, परम केवलज्ञानकी उत्कृष्ट साधकदशा प्राप्त की है और अव जो व्रतादिकी वृत्ति उत्पन्न होती है वह तेरे शुद्धात्म चारित्रको और केवलज्ञानको रोकनेवाली है इसलिये वह विष है।
सम्यग्दृष्टिके स्वभाव दृष्टिका जो वल है वह निर्जराका कारण है और वह दृष्टिमें बंधको अपना स्वरूप नहीं मानता, स्वयं रागका कर्ता नहीं होता, इसलिये उसे अबंध कहा है, परन्तु चारित्रकी अपेक्षाले तो उसके बन्धन है। यदि भोगसे निर्जरा होती हो तो अधिक भोगसे अधिक निर्जरा होनी चाहिये किन्तु ऐसा तो नहीं होता। सम्यग्दृष्टिके जो राग वृत्ति उत्पन्न