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________________ १३६ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला (२७ ) अपूर्व-पुरुषार्थ जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट करनेका-पूर्व में कभी नहीं किया ऐसाअनन्त सम्यक पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्रगट किया है और इसप्रकार सपूर्ण स्वरूपका साधक हुआ है वह जीव किसी भी संयोगमें, भयसे, लज्जासे, लालच से अथवा किसी भी कारणसे असत्को पोषण नहीं ही देता........ इसके लिये कदाचित् किसी समय देह छूटने तककी भी प्रतिकूलता आजाये तो भी वह सत्से च्युत नहीं होता-असत्का कभी आदर नहीं करता । स्वरूपके साधक निःशंक और निडर होते हैं । सत् स्वरूपकी श्रद्धाके वलमें और सत्के महात्म्य के निकट उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकूलता है ही नही । यदि सत्से किंचित् मात्र च्युत हों तो उन्हे प्रतिकूलता आयी कहलाये, परन्तु जो प्रतिक्षण सत्में विशेष विशेष दृढ़ता कर रहे हैं उन्हें तो अपने असीम पुरुषार्थके निकट जगतमें कोई भी प्रतिकूलता ही नहीं है । वे तो परिपूर्ण सत् स्वरूपके साथ अभेद हो गये है-उन्हे डिगानेके लिये त्रिलोकमें कौन समर्थ है ? अहो ! धन्य है ऐसे स्वरूपके साधकोंको !! सम्यक्त्वकी आराधना ज्ञान, चारित्र और तप इन तीनों गुणोंको उज्ज्वल करने वाली-ऐसी यह सम्यक् श्रद्धा प्रधान आराधना है। शेप तीन आराधनाएं एक सम्यक्त्वकी विद्यमानतामें ही आराधक भावसे वर्तती हैं । इसप्रकार सम्यक्त्वकी अकथ्य, अपूर्व महिमा जानकर उस पवित्र ही कल्याण मूर्तिरूप सम्यग्दर्शनको इस अनन्तानंत दुःखरूप-ऐसे र अनादि संसारकी अत्यंतिक निवृत्तिके अर्थ हे भव्यो । तुम भक्ति पूर्वक अंगीकार करो । प्रति समय आराधो" [आत्मानुशासन]
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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