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-* सम्यग्दर्शन जाती है यह सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके,समयकी बात की है। सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है ?
सम्यग्दर्शन होने पर स्वरसका अपूर्व आनंद अनुभवमें आता है। आत्माका सहज आनन्द प्रगट होता है, आत्मीक आनन्दका उछाल आता है अंतरंगमें आत्मशांतिका संवेदन होता है आत्माका सुख अंतरंगमें है वह अनुभवमें आता है, इस.अपूर्व सुखका मार्ग सम्यग्दर्शन ही है मैं भगवान आल्मा समयसार हूँ' इसप्रकार जो निर्विकल्प शांतरस. अनुभवमें आता है वही समयसार और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है। यहाँ तो सम्यग्दर्शन और आत्मा दोनों अभेद किये गये हैं । आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शन स्वरूप है। बारम्बार ज्ञानमें एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिये - सर्वप्रथम आत्माका निर्णय करके पश्चात् अनुभव करनेको कहा है। सर्वप्रथम जबतक यह निर्णय न हो कि मै निश्चय ज्ञानस्वरूप हूं अन्य कोई रागादि मेरा स्वरूप नहीं है तवतक सच्चे श्रुतज्ञानको पहचान कर उसका परिचय करना चाहिये, सत् श्रुतके परिचयसे ज्ञान स्वभावी आत्मा का निर्णय करनेके बाद मति श्रुतज्ञानको उस ज्ञान स्वभावकी ओर झुकाने का प्रयत्न करना चाहिये तथा निर्विकल्प होनेका पुरुषार्थ करना चाहिये यही पहला अर्थात् सम्यक्त्वका मार्ग है। इसमें तो बारम्बार ज्ञानमें एकाग्रताका अभ्यास ही करना है वाह्य कुछ नहीं करना है किन्तु ज्ञानमें ही समझ और एकाग्रताका प्रयास करना है। ज्ञानमें अभ्यास करते २ जहाँ एकाग्र हुआ वहाँ उसी समय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके रूपमें यह आत्मा प्रगट होता है, यही जन्म मरणको दूर करनेका उपाय है। मात्र ज्ञायक स्वभाव है, उसमें अन्य कुछ करनेका स्वभाव नहीं है। निर्विकल्प अनुभव होनेमे पूर्व ऐसा निश्चय करना चाहिये । इसके अतिरिक्त यदि अन्य कुत्र माने तो व्यवहारसे भी आत्माका निश्चय नहीं है। अनन्त उपवास करे तो भी आत्माका ज्ञान नहीं होता। बाहर दौड़ धूप करे तो उससे भी ज्ञान नहीं होता किन्तु ज्ञान स्वभावकी पकड़से ही ज्ञान होता है। आत्माकी ओर