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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१३३ निज रससे ही प्रगट होने वाले शुद्धात्माका अनुभव करना सो सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान है। इसप्रकार अनुभवमें आनेवाला शुद्धात्मा कैसा है ? सो कहते हैं ।
आदि मध्य और अन्तसे रहित त्रिकाल एकरूप है उसमें बंध मोक्ष नहीं है, अनाकुलता रवरूप है। मैं शुद्ध हूं या अशुद्ध हूं ऐसे विकल्पसे होने गाली आकुलतासे रहित है । लक्ष्यमेंसे पुण्य पापका आश्रय छूटकर मात्र प्रात्मा ही अनुभवरूप है, मात्र एक आत्मामें पुण्य-पापके कोई भाव नहीं हैं। मानों समस्त विश्वके ऊपर तैर रहा हो अर्थात् समस्त विभावोंसे पृथक् होगया हो ऐसा चैतन्य स्वभाव पृथक अखंड प्रतिभासमय अनुभव होता है, आत्माका स्वभाव पुण्य पापके ऊपर तैरता है । तैरता है अर्थात् उसमें एकमेक नहीं हो जाता, उसरूप नहीं हो जाता परन्तु उससे अलगका अलग ही रहता है। अनन्त है अर्थात् जिसके स्वभावमें कभी अन्त नहीं है, पुण्य गप तो अन्तवाले हैं, ज्ञानस्वरूप अनन्त है और विज्ञान घन है-मात्र ज्ञानका ही पिंड है। मात्र ज्ञानपिढमें किचित् मात्र भी रागद्वेप नहीं है। अज्ञान भावसे राग का कर्ता था परन्तु स्वभाव भावसे राग का कर्ता नहीं है। अखंड आत्म स्वभावका अनुभव होने पर जो २ अस्थिरताके विभाव थे उन सबने छूटकर जब यह आत्मा विज्ञानघन अर्थात् जिसमें कोई विकल्प प्रवेश नहीं कर सकते ऐसे ज्ञानका निविड़ पिडरूप परमात्म स्वरूप समयसार हैं उसका अनुभव करता है तब वह स्वयं सम्यग्दर्शन स्वरूप है। . निश्चय और व्यवहार We - इंसमें निश्चय-व्यवहार दोनों आजाते हैं । अखंड विज्ञानघन स्वरूप ज्ञानस्वभावी जो आत्मा है सो निश्चय है और परिणतिको स्वभावके सन्मुख करना सो व्यवहार है । मतिश्रुतज्ञानको अपनी ओर करनेकी पुरुषार्थरूपी जो पर्याय है सो व्यवहार है और जो 'अखंड आत्मस्वभाव सो निश्चय है जब मतिश्रुतज्ञानको स्व की ओर किया और आत्माका अनुभव किया उसी समय आत्मा सम्यकरूपसे दिखाई देता है और उसकी श्रद्धा की