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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला १३५ लक्ष्य और श्रद्धा किये बिना सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान कहाँसे हो सकता है ? पहले देवशास्त्रगुरुके निमित्तों से अनेक प्रकार श्रुतज्ञानको जानने और उसमें से एक आत्माको पहिचाने, फिर उसका लक्ष्य करके प्रगट अनुभव करनेके लिये मतिश्रुतज्ञान से बाहर झुकती हुई पर्यायोंको स्वसन्मुख करनेपर तत्काल निर्विकल्प निज स्वभावरस आनन्दका अनुभव होता है । आत्मा जिस समय परमात्म स्वरूपका दर्शन करता है उसी समय स्वयं सम्यग्दर्शनरूप प्रगट होता है । जिसे आत्माकी प्रतीति होगई उसे बादमें विकल्प उठता है तब भी जो आत्मदर्शन होगया है उसकी प्रतीति तो रहती ही है अर्थात् आत्मानुभव होनेके बाद विकल्प उठनेसे सम्यग्दर्शन चला नहीं जाता । किसी वेष या मर्यादामें सम्यग्दर्शन नही है, किन्तु स्वरूप ही समयग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । - सम्यग्दर्शनसे ज्ञान स्वभावी आत्मांका निश्चय करनेके बाद भी शुभभाव आते तो है परन्तु आत्महित ज्ञान स्वभावका निश्चय करनेसे ही होता है । जैसे २ ज्ञान स्वभावकी दृढ़ता बढ़ती जाती है वैसे २ शुभभाव भी दूर होते जाते हैं 1 बाह्य लक्ष्यसे जो वेदन होता है वह सब दुःखरूप है । आत्मा आंतरिक शान्तरसकी ही मूर्ति है, उसके लक्ष्यसे जो वेदन होता है वही सुख है । सम्यग्दर्शन आत्माका गुण है, गुण गुणीसे पृथक् नहीं होता । एक खण्ड प्रतिभासमय आत्माका अनुभव ही सम्यग्दर्शन है । अन्तिम अनुरोध आत्म कल्याणका यह छोटेसे छोटा ( जो सबसे हो सकता है | ) उपाय है। अन्य सब उपायोंको छोड़कर इसीको करना है बाह्यमें हितका साधन लेशमात्र भी नहीं है । सत्समागमसे एक आत्माका ही निश्चय करना चाहिये । वास्तविक तत्त्वकी श्रद्धाके बिना आंतरिक संवेदनका आनंद नहीं जमता । पहले अन्तरंगसे सत्की स्वीकृति प्राये विना सत् स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता और सत् स्वरूपका ज्ञान हुये बिना भवबंधनकी बेड़ी नहीं टूट सकती और भवबंधनके अन्तसे रहित जीवन किस कामका १ भवके
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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