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________________ १२७ भगवान श्री फन्दकन्द-कहाने जैन शाखमाला ज्ञाता स्वभाव परका कुछ करनेवाला नहीं है जैसे मैं ज्ञानस्वभावी हूँ वैसे ही जगतके सब आत्मा ज्ञान स्वभावी हैं, वे स्वयं अपने ज्ञान स्वभावका निर्णय भूले हैं इसलिये दुःखी हैं। यदि वे स्वयं निर्णय करें तो उनका दुःख दूर हो। मैं किसीके बदलने में समर्थ नहीं हूँ, मैं पर जीवोंके दुःखोंको दूर नहीं कर सकता। क्योंकि दुःख उनने अपनी भूलसे किया है, इसलिये वे यदि अपनी भूलको दूर करें तो उनका दुःख दूर हो सकता है । ज्ञानका स्वभाव किसी परके लक्ष्यसे अटकना नहीं है। . पहले जो अ तज्ञानका अवलम्बन बताया है उसमें पात्रता आ चुकी है अर्थात् श्रुतके अवलम्बनसे आत्माका अव्यक्त निर्णय हो चुका है । तत्पश्वात् प्रगट अनुभव कैसे होता है ? यह अब कहते हैं। सम्यग्दर्शनसे पूर्व अ तज्ञानके अवलम्बनके बलसे आत्माके ज्ञान स्वभावको अव्यक्त रूपमें लक्ष्यमें लिया है। अब प्रगटरूपमें लक्ष्यमें लेते हैं, अनुभव करते हैं, आत्मसाक्षात्कार अर्थात् सम्यग्दर्शन करते हैं सो कैसे ? उसकी बात यहाँ कहते हैं। पश्चात् आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये पर परार्थकी प्रसिद्धिका कारण जो इन्द्रिय और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ हैं उनको मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान तत्वको आत्मसन्मुख किया है ऐसा अप्रगटरूप निर्णय हुआ था, वह अब प्रगटरूप कार्यको लाता है जो निर्णय किया था उसका फल प्रगट होता है। यह निर्णय जगतके सभी आत्मा कर सकते हैं । सभी आत्मा परिपूर्ण भगवान ही हैं, इसलिये सब अपने ज्ञान स्वभावका निर्णय कर सकनेमें समर्थ है। जो आत्माका कुछ करना चाहता है उसके वह हो सकता है। किन्तु अनादि कालसे अपनी परवाह नहीं की। हे भाई! तू कौनसी वस्तु है यह जाने बिना तू क्या करेगा ? पहले इस ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय करना चाहिये। यह निर्णय होने पर अव्यक्त रूपमें आत्माका लक्ष्य हुआ फिर परके लक्ष्य और विकल्पसे
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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