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________________ १२६ -* सम्यग्दर्शन पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, इसप्रकार जिसने निर्णय पूर्वक स्वीकार किया है अर्थात् उसका परिणमन पुण्य-पापकी ओरसे हटकर ज्ञायक स्वभावकी ओर गया है, उसके पुण्य पापके प्रति आदर नहीं रहा, इसलिये वह अल्प कालमें ही पुण्य पाप रहित स्वभावका निर्णय करके और उसकी स्थिरता करके वीतराग होकर पूर्ण हो जायगां। यहाँ पूर्णकी ही वात है । प्रारम्भ और पूर्णताके बीच कोई भेद रखा ही नहीं है । नो प्रारभ हुआ है वह पूर्णताको लक्ष्यमें लेकर ही हुआ है। सुनानेवाले और सुनने वाले दोनोंकी पूर्णता ही है । जो पूर्ण स्वभावकी वात करते हैं वे देव, शास्त्र, गुरु तो पवित्र ही है, उनके अवलम्बनसे जिनने स्वीकार किया है वे भी पूर्ण पवित्र हुए विना कदापि नहीं रह सकते । पूर्णको स्वीकार करके आया है तो पूर्ण अवश्य होगा, इसप्रकार उपादान निमिन की संधि साथ ही साथ है। सम्यग्दर्शन होने से पूर्व आत्मानन्दको प्रगट करनेकी पात्रताका स्वरूप कहा जाता है। तुझे धर्म करना है न, तो तू अपनेको पहिचान । सर्व प्रथम सच्चा निर्णय करनेकी बात है। अरे ! तू है कौन, क्या क्षणिक पुण्य पापका करने वाला नू हो है, नहीं नहीं। तू तो ज्ञानका कर्ता ज्ञानस्वभावी है। परका ग्रहण करने वाला अथवा छोड़ने वाला नहीं है, तू तो मात्र ज्ञाता ही है। ऐसा निर्णय ही घर्मके प्रथम प्रारम्भ (सम्यग्दर्शन ) का उपाय है। प्रारम्भमें अर्थात् सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व ऐसा निर्णय न करे तो वह पात्रतामें ही नहीं है। मेरा सहज स्वभाव जानना है इसप्रकार अतके अवलम्वनसे जो निर्णय करता है. वह पात्र जीव है। निसे पात्रता प्रगट होगई उसे अंतरंग अनुभव अवश्य होगा। सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व जिज्ञासु नीव, धर्म सन्मुख हुश्रा जीव, सत्समागमको प्राप्त हुआ जीव श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय करता है। ___ मैं ज्ञान स्वभावी जाननेवाला हूँ। कहीं भीरागद्वेष करके यमें अटक जाना मेरा स्वभाव नहीं है। चाहे जो हो, मैं तो मात्र उसका जाता हूँ, मेरा
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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