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... - सम्यग्दर्शन
हटकर स्वका लक्ष्य प्रगटरूपमें, अनुभवरूपमें कैसे करना चाहिये ? सो बताते हैं।
आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये इन्द्रिय और मनसे जो परलक्ष्य होता है उसे बदलकर मतिज्ञानको स्व में एकाग्र करते हये आत्माका लक्ष्य होता है अर्थात् आत्माकी प्रगट रूपमें प्रसिद्धि होती है। आत्माका प्रगट रूपमें अनुभव होना ही सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन ही धर्म है। धर्मके लिये पहले क्या करना चाहिये ?
- यह कर्ता कर्म अधिकारको अन्तिम गाथा है, इस गाथामें जिज्ञासु को मार्ग बताया है। लोक कहते हैं कि आत्माके सम्बन्धमें कुछ समझमें न आये तो पुण्यके शुभभाव करना चाहिये या नहीं?
उत्तर-पहले स्वभावको समझना ही धर्म है धर्मके द्वारा ही संसारका अंत है, शुभभावसे धर्म नहीं होता और धर्मके विना संसारका अन्त नहीं होता- धर्म तो अपना स्वभाव है, इसलिये पहले स्वभावको समझना चाहिये।
प्रश्न-स्वभाव समझमें न आये तो क्या करना चाहिये ? समझने में देर लगे और एकाधं भव हो तो क्या अशुभभावे करके मर जाय ? ।
___ उत्तर-पहले तो यह हो ही नहीं सकता कि यह बात समझ में न आये । समझनेमें विलम्ब हो तो वहाँ समझनेके लक्ष्यसे अशुभभावको दूर करके शुभभाव करनेसे इनकार नहीं है, परन्तु यह जान लेना चाहिये कि शुभभावसे धर्म नहीं होता । जबतक किसी भी जड़ वस्तुकी क्रिया और रागकी क्रियाको जीव अपनी मानता है तबतक वह यथार्थ समझके मार्गपर नहीं है। सुखका मार्ग सच्ची समझ और विकारका फल जड़ है।।
___यदि आत्माकी सच्ची रुचि हो तो समझका मार्ग लिये विना न रहें। सत्य चाहिये हो, सुख चाहिये हो तो यही मार्ग है। समझने में भले विलम्ब हो जाय किन्तु मार्ग तो सच्ची समझका ही लेना चाहिये न!