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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१२३ सम्बन्धी बातोंकी तीव्र रुचि दूर हो गई है और श्रुतज्ञानमें तीव्र रुचि जम गई है और जो श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय करनेके लिये तैयार हुआ है उसे अल्पकालमें ही आत्मभान हो जायगा। जिसके हृदयमें संसार सम्बन्धी तीव्र रंग जमा है उसके परम शांत स्वभावकी बातको समझनेकी पात्रता जागृत नहीं हो सकती। जहाँ जो श्रुतका अवलम्बन शब्द रखा है वह अवलम्बन तो स्वभावके लक्ष्य है, वापिस न होनेके लक्ष्यसे है । समयसारजीमें अप्रतिहत शैलीसे बात है। ज्ञान स्वभावी
आत्माका निर्णय करनेके लिये जिसने श्रुतका अवलम्बन लिया है वह आत्म स्वभाव का निर्णय करता ही है। वापिस होने की बात ही समयसारमें नहीं है।
संसारकी रुचिको कम करके आत्माका निर्णय करनेके लक्ष्य से जो यहाँ तक आया है उसे श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे निर्णय अवश्य होगा। निर्णय न हो यह हो ही नहीं सकता। साहूकारके बही खातेमें दिवालेकी बात ही नहीं होती इसी प्रकार यहाँ दीर्घ संसारकी बात ही नहीं है। यहाँ तो एक दो भवमें अल्पकालमें ही मोक्ष जानेवाले जीवोंकी बात है। सभी बातोंकी हॉ हॉ कहा करे और अपने ज्ञानमें एकभी बातका निर्णय न करे ऐसे ध्वज पुच्छल जीवोंकी गत यहाँ नहीं है। यहाँ तो सुहागा जैसी स्पष्ट बात है। जो अनन्त संसारका अत लानेके लिये पूर्ण स्वभावके लक्ष्यसे प्रारम्भ करनेको निकले हैं ऐसे जीवोंका किया हुआ प्रारम्भ वापिस नहीं होता, ऐसे लोगोंकी ही यहाँ बात है । यह तो अप्रतिहत मार्ग है, पूर्णताके लक्ष्यसे किया गया प्रारम्भ वापिस नहीं होता। पूर्णताके लक्ष्यसे पूर्णता होती ही है। रुचि की रटन
यहाँ पर एक ही बातको अदल बदल कर बारम्बार कहा है। इसलिये रुचिवान जीव उकलाता नहीं है। नाटक की रुचिवाला आदमी नाटक में वशमोर' कहके भी अपनी रुचिकी वस्तुको बारम्बार देखता है।