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________________ १२४ --* सम्यग्दर्शन इसीप्रकार जिन भव्य जीवोंको आत्मा की रुचि हो गई है और जो आत्मा का भला करने के लिये निकले हैं वे बारम्बार रुचिपूर्वक प्रति समय - खाते पीते, चलते सोते, बैठते बोलते, और विचार करते हुए निरंतर श्रुतका ही अवलम्बन स्वभावके लक्ष्यसे करते हैं । उसमें कोई काल अथवा क्षेत्रकी मर्यादा नहीं करता । उन्हें श्रुतज्ञानकी रुचि और जिज्ञासा ऐसी जम गई है कि वह कभी भी दूर नहीं होती । अमुक समय तक अवलम्बन करके फिर उसे छोड़ देनेकी बात नहीं है परन्तु श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे आत्माका निर्णय करने को कहा गया है। जिसे सच्चे तत्त्वकी रुचि है वह अन्य समस्त कार्योंकी प्रीतिको गौण कर देता है । प्रश्न - तब क्या सत्की प्रीति होने पर खाना पीना और धन्धा व्यापार इत्यादि सब छोड़ देना चाहिये ? क्या श्रुतज्ञानको सुनते ही रहना चाहिये और फिर उसे सुनकर किया क्या जाय ? उत्तर - सत् की प्रीति होने पर तत्काल खाना पीना इत्यादि सब छूट ही जाता हो सो बात नहीं है किन्तु उस ओर से रुचि अवश्य ही कम हो जाती है। परमें से सुखबुद्धि उठ जाय और सर्वत्र एक आत्मा ही आगे हो तो निरन्तर आत्माकी ही चाह स्वतः होगी, मात्र श्रुतज्ञानको सुनने ही रहना चाहिये ऐसा नहीं कहा किन्तु श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका निर्णय करना चाहिये । श्रुतके अवलम्बन की धुनि लगने पर देव, गुरु, शास्त्र, धर्म, निश्चय व्यवहार इत्यादि अनेक पहलुओं की बातें आती हैं उन सब पहलुओं को जानकर एक ज्ञानस्वभावी आत्माका निश्चय करना चाहिये इसमें भगवान कैसे है, उनके शास्त्र कैसे हैं और वे क्या कहते हैं ? इन सवा अवलम्बन यह निर्णय कराता है कि तू ज्ञान है, आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है, . तू ज्ञानके सिवाय दूसरा कुछ नहीं कर सकता । इसमे यह बताया गया है कि देव शास्त्र गुरु कैसे होते हैं और उन देव शास्त्र गुरुको पहचान कर उनका अवलम्बन लेने वाला स्वयं क्या समझा होता है । तू ज्ञान स्वभावी आत्मा है, तेरा जानना ही स्वमाय है
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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