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- सम्यग्दर्शन प्रगट होता है ? सुख कहाँ है और कैसे प्रगट होता है इसका ज्ञान हुये विना प्रयत्न करते करते सूख जाय तो भी सुख नहीं मिलता-धर्म नहीं होता। सर्वज्ञ भगवानके द्वारा कहे गये श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे यह निर्णय होता है। और यह निर्णय करना ही प्रथम धर्म है निजे धर्म प्राप्त करना हो वह धर्मीको पहचानकर वे क्या कहते हैं इसका निर्णय करनेके लिये सत्समागम करे। सत्समागमसे जिले श्रुतज्ञानका अवलम्बन हुआ कि अहो! पूर्ण आत्म वस्तु उत्कृष्ट महिमावान है ऐसा परम स्वरूप मैंने अनन्तकालमें कभी सुना भी नहीं था । ऐसा होने पर उसके स्वरूपकी रुचि जागृत होती है और सत्समागमका रंग लग जाता है, इसलिये उसे कुवादि अथवा संसारके प्रति रुचि नहीं होती।
यदि वस्तुको पहचाने तो प्रेम जागृत हो और उस ओर पुरुषार्थ मुके । श्रात्मा अनादिसे स्वभावको भल कर परभावरूपी परदेशमें चक्कर लगाता है, स्वरूपसे बाहर संसारमें परिभ्रमण करते करते परम पिता सर्वज्ञ परमात्मा और परम हितकारी श्री परम गुरु मिले और वे सुनाते है कि पूर्ण हित कैसे हो सकता है और आत्माके स्वरूपकी पहचान कराते हैं तव अपने स्वरूपको सुनकर किस धर्मीको उल्लास न आयगा, आता ही है।
आत्मस्वभावकी वातको सुनकर जिज्ञासु जीवोंके महिमा जागृत होती ही है। अहो ! अनन्त कालसे यह अपूर्व ज्ञान न हुआ, स्वरूपसे बाहर परभाव में परिभ्रमण करके अनन्त काल तक वृथा दुःख उठाया। यदि पहले यह अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया होता तो यह दुःख न होता इसप्रकार स्वरुपकी आकांक्षा जागृत करे रुचि उत्पन्न करे और इस महिमाको यथार्थतया रटते हुये स्वरूपका निर्णय करे। इसप्रकार जिसे धर्म करके सुग्बी होना हो उसे पहले श्रुतज्ञानका अवलम्बन लेकर आत्माका निर्णय करना चाहिये। भगवानकी श्रुतज्ञानरूपी डोरीको दृढ़तासे पकड़ कर उसके श्रयलम्यनमे स्वदप में पहुँचा जा सकता है। श्रतज्ञानके अवलम्बनका अर्थ है सच्चे प्रतवारी, रुचिका होना और अन्य कुश्रुतमानमें मचिका न होना । जिमी मंमार
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