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१२.
भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला हो तो श्रुतके अवलम्बनमें टिक नहीं सकता। धर्म कहाँ है और वह कैसे होता है ?
बहुतसे जिज्ञासुओं के यही प्रश्न उठता है कि धर्मके लिये पहले क्या करना चाहिये । पर्वत पर चढ़ा जाय, सेवा पूजा की जाय, गुरुकी भक्ति करके उनकी कृपा प्राप्त की जाय अथवा दान किया जाय ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि इसमें कहीं भी आत्माका धर्म नहीं है, धर्म तो अपना स्वभाव है धर्म पराधीन नहीं है किसीके अवलम्बनसे धर्म नहीं होता धर्म किसीके देनेसे नहीं मिलता किन्तु आत्माकी पहिचानसे ही धर्म होता है। जिसे अपना पूर्णानन्द चाहिये है उसे पूर्ण आनन्दका स्वरूप क्या है वह किसे प्रगट हुआ है यह निश्चय करना चाहिये । जो आनन्द मैं चाहता हूँ उसे पूर्ण अबाधित चाहता हूं। अर्थात् कोई आत्मा वैसी पूर्णानन्द दशाको प्राप्त हुये हैं और उन्हें पूर्णानन्ददशामें ज्ञान भी पूर्ण ही है क्योंकि यदि पूर्ण ज्ञान न हो तो रागद्वेष रहे और रागद्वेष रहे तो दुःख रहे ।-- जहाँ दुःख होता है वहाँ पूर्णानन्द नहीं हो सकता इसलिये जिन्हे पूर्णानन्द प्रगट हुआ है ऐसे सर्वज्ञ भगवान हैं उनका और वे क्या है इसका जिज्ञासुको निर्णय करना चाहिये । इसलिये कहा है कि पहले श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे आत्माका निर्णय करना चाहिये इसमें उपादान निमित्तकी संधि विद्यमान है। ज्ञानी कौन है ? सत् बात कौन कहता है ? यह सब निश्चय करनेके लिये निवृत्ति लेनी चाहिये । यदि स्त्री, कुटुम्ब, लक्ष्मीका प्रेम और संसारकी रुचिमें कमी न हो तो सत् समागमके लिये निवृत्ति नहीं ली जा सकती। जहाँ श्रुतका अवलम्बन लेनेकी बात कही गई है वहाँ तीव्र अशुभभावक त्यागकी बात अपने आप आगई और सच्चे निमित्तोंकी पहिचान करनेकी बात भी आगई है। सुखका उपाय ज्ञान और सत्समागम है
तुझे सुख चाहिये है न ? यदि सचमुच में तुझे सुख चाहिये हो तो पहले यह निर्णय कर और यह ज्ञान कर कि सुख कहाँ है और वह कैसे