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-* सम्यग्दर्शन हैं आत्माको जाने बिना आत्माके स्वभावकी वृद्धिरूप प्रभावना किस प्रकार करे ? प्रभावना करनेका जो विकल्प उठता है वह भी परके कारण नहीं, क्योंकि दूसरेके लिये कुछ भी अपनेमें होता है यह कहना जैनशासनकी मर्यादामें नहीं है । जैनशासन तो वस्तुको स्वतन्त्र स्वाधीन परिपूर्ण स्थापित करता है। भगवानने परजीवकी दयाका पालन करना नहीं कहा।
भगवानने अन्य जीवोंकी दयाकी स्थापना की है यह वात गलत है यह जीव परजीवकी क्रिया कर ही नहीं सकता तो फिर भगवान उसे बचाने के लिये क्यों कहेंगे भगवानने तो आत्म स्वभावको पहचानकर अपने आत्माको कषाय भावसे बचानेको कहा है यही सच्ची दया है। अपने आत्माका निर्णय किये बिना कोई क्या करेगा। भगवानके श्रुतज्ञानमें तो यह कहा है कि तू अपनेसे परिपूर्ण वस्तु है प्रत्येक तत्त्व अपने आपही स्वतंत्र है । किसी तत्त्वको दूसरे तत्वका आश्रय नहीं है। इसप्रकार वस्तुके स्वरूपको पृथक रखना सो अहिसा है। और एक दूसरेका कुछ कर सकता है, इस प्रकार वस्तुको पराधीन मानना सो हिंसा है। आनंद प्रगट करने की भावना वाला क्या करे ?
जगत्के जीवोंको सुख चाहिये है सुख कहो या धर्म कहो धर्म करना है इसलिये आत्मशांति चाहिये है। अच्छा करना है किन्तु अच्छा कहाँ करना है ? आत्माकी अवस्थामें दुःखका नाश करके वीतराग आनन्द प्रगट करना है। यह आनन्द ऐसा चाहिये कि जो स्वाधीन हो जिसके लिये परका अवलंवन न हो ऐसा आनन्द प्रगट करनेकी जिसकी यथार्थ भावना हो वह जिज्ञासु कहलाता है। अपना पूर्णानन्द प्रगट करनेकी भावना वाला जिज्ञासु पहले यह देखे कि ऐसा पूर्णानन्द किसे प्रगट हुआ । निजको अभी वैसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ क्योंकि यदि अपनको वैमा आनन्द प्रगट हो तो प्रगट करनेकी उसे भावना न हो । तात्पर्य यह है कि अभी निजको वैसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ किन्तु अपनेमें जैमी भावना