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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
११७ लक्षण है। वस्तु स्व अपेक्षा से है और परापेक्षा से नहीं है, इससे वस्तुको स्वतः सिद्ध-ध्रुवरूपमें सिद्ध किया है । श्रुतज्ञानका वास्तविक लक्षण-अनेकान्त ।
एक वस्तुमें 'है' और 'नही है। ऐसी परस्पर विरुद्ध दो शक्तियाँ भिन्न भिन्न अपेक्षासे प्रकाश कर वस्तुका परसे भिन्न स्वरूप बताती है, यही श्रुतज्ञान भगवानके द्वारा कहा गया शास्त्र है। इसप्रकार आत्मा सर्व पर द्रव्योंसे पृथक् वस्तु है इसप्रकार पहले श्रुतज्ञानसे निश्चय करना चाहिये।
अनन्त पर वस्तुओंसे यह आत्मा भिन्न है, इसप्रकार सिद्ध होने पर अब अपनी द्रव्य पर्यायमें देखना चाहिये । मेरा त्रिकाल द्रव्य एक समयमात्रकी अवस्था रूप नहीं है अर्थात् विकार क्षणिक पर्यायके रूपमें है परन्तु त्रिकाल स्वरूपके रूपमें नहीं है। इसप्रकार विकाररहित स्वभावकी सिद्धि भी अनेकान्तसे होती है भगवानके द्वारा कहे गये सत् शास्त्रोंकी महत्ता अनेकान्तसे ही है। भगवान ने पर जीवोंकी दया पालन करनेको कहा है और अहिंसा बतलाकर कर्मोंका वर्णन किया है। यह कहीं भगवानको अथवा भगवानके द्वारा कहे गये शास्त्रको पहचाननेका वास्तविक लक्षण नहीं है। भगवान भी दूसरेका नहीं कर सके
___ भगवानने अपना कार्य परिपूर्ण किया और दूसरेका कुछ भी नहीं किया क्योंकि एक तत्त्व अपने रूपमें है और पररूपमें नहीं है इसलिये वह किसी अन्यका कुछ नहीं कर सकते। प्रत्येक द्रव्य भिन्न भिन्न स्वतन्त्र है, कोई किसीका कुछ नहीं कर सकता, इसप्रकार जानना ही भगवानके शास्त्र की पहिचान है, यही श्रतज्ञान है। यह तो अभी स्वरूपको समझने वाले की पात्रता कही गई है। जैनशास्त्रमें कथित प्रभावनाका सच्चा स्वरूप
___ कोई परद्रव्यकी प्रभावना नहीं कर सकता परन्तु जैनधर्म अर्थात् आत्माका जो वीतराग स्वभाव है उसकी प्रभावना धर्मी जीव कर सकते