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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
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है वैसा आनन्द अन्य किसीको प्रगट हो चुका है और जिन्हें वैसा आनन्द प्रगट हुआ है उनके निमित्तसे स्वयं वह आनन्द प्रगट करनेका यथार्थ मार्ग जाने । अर्थात् इसमें सच्चे निमित्तोंकी पहचान भी आगई जबतक इतना करता है तबतक अभी जिज्ञासु है ।
अपनी अवस्थामें अधर्म - अशांति है उसे दूर करके धर्म-शांति प्रगट करना है वह शांति अपने आधार पर और परिपूर्ण होनी चाहिये । जिसे ऐसी जिज्ञासा हो वह पहले यह निश्चय करे कि मै एक आत्मा अपना परिपूर्ण सुख प्रगट करना चाहता हूँ तो वैसा परिपूर्ण सुख किसीके प्रगट हुआ होना चाहिये । यदि परिपूर्ण सुख-आनन्द प्रगट न हो तो दुःखी कहलायगा । जिसे परिपूर्ण और स्वाधीन आनन्द प्रगट हुआ है वही सम्पूर्ण सुखी है । ऐसे सर्वज्ञ ही हैं । इस प्रकार जिज्ञासु अपने ज्ञानमें सर्वज्ञका निर्णय करता है परके करने धरनेकी बात तो है ही नहीं । जब वह परसे किंचित् पृथक हुआ है तब तो आत्माकी जिज्ञासा हुई है । यह तो परसे अलग होकर अब जिसको अपना हित करनेकी तीव्र आकांक्षा जागृत हुई है ऐसे जिज्ञासु जीवकी यह बात है । पर द्रव्यके प्रति जो सुख बुद्धि है और जो रुचि है उसे दूर कर देना सो पात्रता है तथा स्वभावकी रुचि और पहचान का होना सो पात्रताका फल है ।
दुःखका मूल भूल है जिसने अपनी भूलसे दुःख उत्पन्न किया है यदि वह अपनी भूलको दूर करदे तो उसका दुःख दूर हो जाय । अन्य किसीने वह भूल नही कराई है इसलिये दूसरा कोई अपना दुःख दूर करने में समर्थ नहीं है ।
श्रुतज्ञानका अवलंबन ही प्रथम क्रिया है
जो आत्मकल्याण करनेके लिये तैयार हुआ है ऐसे जिज्ञासुको पहले क्या करना चाहिये ? सो बताया जाता है । आत्म कल्याण अपने आप नहीं हो जाता किन्तु अपने ज्ञानमें रुचि और पुरुषार्थसे आत्म कल्याण होता है । अपना कल्याण करनेके लिये जिनके पूर्ण कल्याण प्रगट हुआ है