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________________ ११४ -* सम्यग्दर्शन हे प्रभु ! पहले जिनने प्रभुता प्रगट की है ऐसे देव गुरुकी भक्ति, बड़प्पन न आवे और जगतका बड़प्पन दिखाई दे तवतक तेरी प्रभुता प्रगट नहीं होगी। देव गुरु शास्त्रकी व्यवहार श्रद्धा तो जीव अनन्तबार कर चुका परन्तु इस आत्माकी श्रद्धा अनन्तकालसे नहीं की है-परमार्थको नहीं समझा है । शुभ रागमें अटक गया है। (२४) सम्यग्दृष्टिका अन्तर परिणमन चिन्मूरत हगधारीकी मोहि रीति लगत है अटापटी ।। चिन्मू० ॥ बाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अन्तर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनतिर्ते नित हटाहटी ॥ चिन्मूः॥१॥ ज्ञान विराग शक्ति ते विधिफल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदन निवासी तदपि उदासी, ताः आस्रव छटाछटी ।। चिन्मू० ॥२॥ जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटामी। नारक पशु तिय, फंड विकलत्रय, प्रकृतिनको खै कटाकटी ॥ चिन्मू० ॥ ३ ॥ संयम धर न सके पै संयम,-धारनकी उर चटाचटी। तासु सुयश गुनकी 'दौलत' को लगी रहे नित रटारटी ॥ चिन्मू०॥ "सम्यक्त्व प्रभु है !" सम्यक्त्व वास्तवमें प्रभु है, इससे वह परम आराध्य है। क्योंकि उसीके प्रसादसे सिद्धि प्राप्त होती है और उसीके निमित्तसे मनुष्यका ऐसा माहात्म्य प्रगट होता है कि जिसमे वह नीव जगत पर विलय प्राप्त कर लेता है-अर्थात् सर्वज्ञ होकर समस्त जगतको जानता है। सम्यक्त्वकी ऐसी महिमा है कि उससे समस्त सुखोकी प्राप्ति होती है। अधिक क्या कहा जाये ? भूतकालमें जितने नरगर सिद्ध हुये हैं और भविष्यमें होंगे वह सब इस सम्यक्त्वका ही _ [अनगार धर्मामृन] र प्रताप है !
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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