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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
११५ (२५) जिज्ञासुको धर्म कैसे करना चाहिये ?
जो जीव जिज्ञासु होकर स्वभावको समझनेके लिये आया है वह सुख लेने को और दुःख दूर करनेको आया है। सुख अपना स्वभाव है और वर्तमानमें जो दुःख है वह क्षणिक है इसलिये वह दूर हो सकता है। वर्तमान दुःखरूप अवस्थाको दूर करके स्वयं सुखरूप अवस्थाको प्रगट कर सकता है। जो सत्को समझनेके लिये आया है उसने इतना तो स्वीकार कर ही लिया है। आत्माको अपने भावमें पुरुषार्थ करके विकार रहित स्वरूपका निर्णय करना चाहिये। वर्तमान विकार होने पर भी विकार रहित स्वभावकी श्रद्धा की जा सकती है अर्थात् यह निश्चय हो सकता है कि यह विकार और दुःख मेरा स्वरूप नहीं है। पात्र जीवका लक्षण
जिज्ञासु जीवोंको स्वरूपका निर्णय करनेके लिये शास्त्रोंने पहली ही जान क्रिया बताई है। स्वरूपका निर्णय करनेके लिये अन्य कोई दान, पूजा, भक्ति, व्रत, तपादि करनेको नहीं कहा है परन्तु श्रुतज्ञानसे आत्माका निर्णय करना ही कहा है । कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रका आदर और उस ओरका खिंचाव तो दूर हो ही जाना चाहिये, तथा विषयादि परवस्तुमें जो सुख बुद्धि है वह दूर हो जाना चाहिये। सब ओरने रुचि दूर होकर अपनी ओर रुचि होनी चाहिये । देव, गुरु, और शास्त्रको यथार्थ रीत्या पहचान कर उस ओर आदर करे और यदि यह सब स्वभावके लक्ष्यसे हुआ हो तो उस जीवके पात्रता हुई कही जा सकती है, इतनी पात्रता भी सम्यग्दर्शन का मूल कारण नहीं है। सम्यग्दर्शनका मूलकारण तो चैतन्य स्वभावका लक्ष्य करना है। परन्तु पहले कुदेवादिका सर्वथा त्याग तथा सच्चे देव गुरु शास्त्र और सत्समागमका प्रेम तो पात्र जीवोंके होता ही है, ऐसे पात्र जीवों को आत्माका स्वरूप समझनेके लिये क्या करना चाहिये, यह इस समयसारमें स्पष्टतया बतलाया है।