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श्री भगवानकुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
११३ पहले तो उल्लास जागृत होता है कि अहो! अभीतक तो असग चैतन्य ज्योत आत्माकी बात ही नहीं बनी और सच्चे देव शास्त्र गुरुकी मक्ति से भो अलग रहा । इतना समय बीत गया । इसीप्रकार जिज्ञासुको पहलेकी भूलका पश्चाताप होता है और वर्तमानमें उल्लास जागृत होता है। किन्तु यह देव गुरु शास्त्रका राग आत्मस्वभाव को प्रगट नहीं करता। पहले तो राग उत्पन्न होता है और फिर "यह राग भी मेरा स्वरूप नहीं है" इसप्रकार स्वभाव दृष्टिके वल से अपूर्व आत्मभान प्रगट होता है।।
सच पूछा जाय तो देव गुरु शास्त्रके प्रति अनादिसे सत्य समर्पण ही नहीं हुआ। और उनका कहा हुआ सुना तक नहीं। अन्यथा देवगुरु शान तो यह कहते हैं कि तुझे मेरा आश्रय नहीं है, तू स्वतंत्र है। यदि देव गुरु शास्त्रकी सच्ची श्रद्धा की होती तो उसे अपनी स्वतंत्रताकी श्रद्धा अवश्य हो जाती। देव गुरु शास्त्रके चरणों में तन मन धन समर्पण किये बिना जिसमें सम्पूर्ण आत्माका समर्पण समाविष्ट है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र कहाँ से प्रगट होगा ?
अहो ! जगतको वस्त्र मकान धन आदिमें बड़प्पन मालूम होता है परन्तु जो जगतका कल्याण कर रहे हैं ऐसे देव गुरु शास्त्रके प्रति भक्तिसमर्पण भाव उत्पन्न नहीं होता । उसके बिना उद्धारकी कल्पना भी कैसी ?
प्रश्न-आत्माके स्वरूपमें राग नहीं है। फिर भी देव गुरु शास्त्रके प्रति शुभ राग करनेके लिये क्यों कहते हैं ?
उत्तर-जैसे किसी म्लेच्छको मांस छुड़ानेका उपदेश देनेके लिये म्लेच्छ भाषाका भी प्रयोग करना पड़ता है, किन्तु उससे ब्राह्मणका ब्राह्मणत्व नष्ट नहीं हो जाता, उसीप्रकार सम्पूर्ण राग छुड़ानेके लिये उसे अशुभ रागसे हटाकर देव गुरु धर्मके प्रति शुभराग करनेको कहा जाता है। (वहाँ राग करानेका हेतु नहीं है, किन्तु राग छुड़ानेका हेतु है। जिसका राग कम हुआ, उतना ही प्रयोजन है । राग रहे यह प्रयोजन नहीं है।)
उसके बाद "देव शास्त्र गुरुका शुभ राग भी मेरा स्वरूप नहीं है" इसप्रकार रागका निषेध करके वीतराग स्वरूपकी श्रद्धा करने लगता है।