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- :-* सम्यग्दर्शन विकार परमें नहीं किन्तु अपनी एक समयकी पर्याय में है। यदि दूसरे समयमें नया विकार करे तो वह होता है। शगका त्याग करू ऐसी मान्यता भी नारितसे है, अस्तिस्वरूप शुद्धात्मा के भानके विना रागकी नास्ति कौन करेगा? आत्मा में कोई परका प्रवेश है ही नहीं तो फिर त्याग किसका ? पर वस्तुका त्यागका कर्तृत्व व्यर्थ ही विपरीत मान रखा है, उसी मान्यता का त्याग करना है।
प्रश्न यदि सत्य समझमें आजाय तो वाह्य वर्तनमें कोई फर्क न दिखाई दे अथवा लोगों के ऊपर उसके ज्ञानकी छाप न पड़े ?
उत्तरः-एक द्रव्य की छाप दूसरे द्रव्य पर कभी तीन लोक और तीन कालमें पड़ती ही नहीं है । प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। यदि एक की छाप दूसरे पर पड़ती होती तो त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान की छाप अभव्य जीव पर क्यों नहीं पड़ती ? जव जीव स्वय अपने द्वारा ज्ञान करके अपनी पहिचान की छाप अपने ऊपर डालता है तव निमित्तमे मात्र आरोप किया जाता है। बाहर से ज्ञानी पहिचाना नहीं जा सकता। क्योंकि यह हो सकता है कि जानी होनेपर भी वाह्य में हजारों त्रियां हों और अज्ञानी के बाह्य में कुछ भी न हो। ज्ञानी को पहिचानने के लिये यदि तत्वदृष्टि हो तो ही वह पहिचाना जा सकता है। ज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर वाह्य में कोई फर्क दिखाई दे या न दे किन्तु अन्तर्दृष्टि में फर्क पड़ ही जाता है।
___ सत् के सुनते ही एक कहता है कि अभी ही सन् वताइये, यों कहनेवाला सत्का हकार करके सुनता है, वह समझनेके योग्य है और दूसरा कहता है कि अभी यह नहीं, अभी यह मेरी समझ में नहीं आ सकता' यों कहने वाला सत के नकारसे सुनता है, इसलिये वह समझ नहीं सकता।
___ श्री समयसार जी की पहली गाथामें यों स्थापित किया गया है कि मैं और नू दोनों सिद्ध हैं, इसके सुनते ही सबसे पहली आवाज में यदि