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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
१०५ (२०) परम सत्यका हकार और उसका फल
परम सत्य सुनने पर भी समझमें क्यों नहीं आता ? 'मैं लायक नहीं हूँ, मैं इसे नहीं समझ सकता' ऐसी दृष्टि ही उसे समझनेमें अयोग्य रखती है। सत्के एक शब्दका भी यदि अंतरसे सर्व प्रथम 'हकार आया तो वह भविष्यमें मुक्तिका कारण हो जाता है। एकको सत्के सुनते ही भीतरसे बड़े ही वेगके साथ हकार आता है और दूसरा मैं लायक नहीं हूँयह मेरे लिये नहीं है' इसप्रकार की मान्यताका व्यवधान करके सुनता है, वही व्यवधान उसे समझने नहीं देता। दुनियाँ विपरीत बातें तो अनादि कालसे कर ही रही है, आज इसमें नवीनता नहीं है। अंतर्वस्तुके भानके बिना बाहरसे त्यागी होकर अनन्तबार सुख गया किन्तु अतरसे सत्का हकार न होनेसे धर्मको नहीं समझ पाया।
जब ज्ञानी कहते हैं कि सभी जीव सिद्ध समान है और तू भी सिद्ध समान है, भूल वर्तमान एक समय मात्र की है, इसे तू समझ सकेगा; इसलिये कहते हैं, तब यह जीव 'मैं इस लायक नहीं हूँ, मैं इसे नहीं समझ सकूगा' इस प्रकार ज्ञानियोंके द्वारा कहे गये सत्का इनकार करके सुनता है। इसलिये उनकी समझमें नही आता।
भूल स्वभावमें नहीं है, केवल एक समय मात्रके लिये पर्यायमें है वह भूल दूसरे समयमें नहीं रहती। हॉ, यदि वह स्वयं दूसरे समय में नई भूल करे तो बात दूसरी है (पहले समयकी भूल दूसरे समयमें नष्ट हो जाती है)। शरीर अनन्त परमाणुओंका समूह है और आत्मा चैतन्य मूर्ति है । भला, इसे शरीरके साथ क्या लेना देना ? जैन धर्मका यह त्रिकालाबाधित कथन है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी पर्यायको उत्पन्न नहीं कर सकता, इसे न मानकर मेरेसे परकी अवस्था हुई अथवा हो सकती है' यों मानता है, यही अज्ञान है । जहाँ जैनकी कथनी को भी नहीं मानता वहाँ जैनधर्म को कहॉसे समझेगा ? यह आत्मा यदि परका कुछ कर सकता होता तभी तो परका कुछ न करनेका अथवा परके त्याग करनेका प्रश्न आता!