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________________ - सम्यग्दर्शन उपसंहार -पुरुषार्थ की प्रतीतिपहले हारके दृष्टान्तसे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप बताया है। जैसे हारमें मोती एकके बाद दूसरा क्रमशः होता है, उसी प्रकार द्रव्यमें एकके बाद दूसरी पर्याय होती है । जहाँ सर्वज्ञका निर्णय किया है कि वहाँ त्रिकालकी क्रमवद्ध पर्यायका निर्णय हो जाता है। केवलज्ञानगम्य त्रिकाल अवस्थायें एक के बाद दूसरी होती ही रहती है। वास्तवमें तो मेरे स्वभावमें जो क्रमवद्ध अवस्था है उसीको केवलज्ञानीने जाना है। (इस अभिप्रायके बलका झुकाव स्वभावकी ओर है, ऐसा जिसने निर्णय किया है उसीने अपने स्वभावकी प्रतीति की है। जिसे स्वभावकी प्रतीति होती है उसे अपनी पर्यायकी शंका नहीं होती। क्योंकि वह जानता है कि अवस्था तो मेरे स्वभावमें से क्रमवद्ध आती है, कोई पर द्रव्य मेरी अवस्थाको बिगाड़ने में समर्थ नहीं है। ज्ञानीको ऐसी शंका कदापि नहीं होती कि "वहुतसे कर्मोंका तीव्र उदय आया तो मैं गिर जाऊंगा" जहाँ पीछे गिरनेकी शंका है वहाँ स्वभावकी प्रतीति नहीं है, और जहाँ स्वभावकी प्रतीति है वहाँ पीछे गिरनेकी शंका नहीं होती। जिसने अरिहन्त जैते ही अपने स्वभावका विश्वास करके क्रमबद्ध पर्याय और केवलज्ञानको स्वभावमें अन्तर्गत किया है उसे क्रमबद्ध पर्यायमें केवलज्ञान होता है। जो दशा अरिहन्त भगवानके प्रगट हुई है वैसी ही दशा मेरे स्वभावमें है। अरिहन्तके जो दशा प्रगट हुई है वह उनके अपने स्वभावमें से ही प्रगट हुई है। मेरा स्वभाव भी अरिहन्त जैसा है। उसीमें से मेरी शुद्ध दशा प्रगट होगी। जिसे अपनी अरिहन्त दशाकी ऐसी प्रतीति नहीं होती उसे अपने सम्पूर्ण द्रव्यकी ही प्रतीति नहीं होती। यदि द्रव्यकी प्रतीति हो तो द्रव्यकी क्रमवद्धदशा विकसित होकर जो अरिहन्त दशा प्रगट होती है उसकी प्रतीति होती है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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