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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला "यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेनाको जीतनेका उपाय प्राप्त कर लिया है।" यहाँ मात्र अरिहन्तको जाननेकी बात नहीं है किन्तु अपने स्वभावको एकमेक करके यह ज्ञान करनेकी बात है कि मेरा स्वरूप अरिहन्तके समान ही है। यदि अपने स्वभावकी निःशंकता प्राप्त न हो तो अरिहन्तके स्वरूप का यथार्थ निर्णय नहीं होता। प्राचार्यदेव अपने स्वभावकी निःशंकतासे कहते हैं कि भले ही इस कालमें क्षायक सम्यक्त्व और साक्षात् भगवान अरिहन्तका योग नहीं है तथापि मैंने मोहकी सेनाको जीतनेका उपाय प्राप्त कर लिया है । "पचम कालमें मोहका सर्वथा क्षय नहीं हो सकता" ऐसी बात आचार्यदेवने नहीं की, किन्तु मैंने तो मोहक्षयका उपाय प्राप्त कर लिया है-ऐसा कहा है। भविष्यमें मोहक्षयका उपाय प्रगट होगा ऐसा नहीं किन्तु अब ही-वर्तमानमें ही मोहक्षयका उपाय मैंने प्राप्त कर लिया है। अहो ! सम्पूर्ण स्वरूपी आत्माका साक्षात् अनुभव है तो फिर क्या नहीं है। श्रात्माका स्वभाव ही मोहका नाशक है, और मुझे आत्म स्वभावकी प्राप्ति हो चुकी है । इसलिये मेरे मोहका क्षय होने में कोई शंका नहीं है। आत्मामें सब कुछ है, उसीके बलसे दर्शनमोह और चारित्र मोह का सर्वथा क्षय करके, केवलज्ञान प्रगट करके साक्षात् अरिहन्त दशा प्रगट करूगा। जब तक ऐसी सम्पूर्ण स्वभावकी निःशंकताका बल प्राप्त नहीं होता तब तक मोह दूर नहीं होता। ___ सच्ची दया और हिंसा मोहका नाश करनेके लिये न तो पर जीवोंकी दया पालन करने कहा है और न पूजा, भक्ति करनेका ही आदेश दिया है किन्तु यह कहा है कि अरिहन्तका और अपने आत्माका निर्णय करना ही मोह क्षयका उपाय है। पहले प्रास्माकी प्रतीति न होनेसे अपनी अनन्त हिंसा करता था, और अव यथार्थ प्रतीति करनेसे अपनी सच्ची दया प्रगट होगई है और स्व हिंसाका महा पाप दूर हो गया है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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