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________________ भगवान श्री कुन्दकुम्द-कहान जैन शास्त्रमाला ___ मेरे द्रव्यमें से अरिहन्त दशा आने वाली है, उसमें परका कोई विघ्न नहीं है। कर्मका तीव्र उदय आकर मेरे द्रव्यको शुद्ध दशाको रोकने के लिये समर्थ नहीं है । क्योंकि मेरे स्वभावमें कर्मकी नास्ति ही है। जिसे ऐसी शंका है कि आगे जाकर यदि तीव्र कर्मका उदय आया तो गिर जाऊंगा' उसने अरिहन्तका स्वीकार नहीं किया है। अरिहन्त अपने पुरुषार्थ के बलसे कर्मका क्षय करके पूर्ण दशाको प्राप्त हुये हैं। उसीप्रकार मैं भी अपने पुरुषार्थके बलसे ही कर्मका क्षय करके पूर्णदशाको प्राप्त होऊंगा बीचमें कोई विघ्न नहीं है। जो अरिहंतकी प्रतीति करता है वह अवश्य अरिहंत होता है । [गाथा ८० की टीका समाप्त ] (१६) भेदविज्ञानीका उल्लास __ जो चैतन्यका लक्षण नहीं है-ऐसी समस्त बंधभावकी वृत्तियाँ मुझसे भिन्न हैं-इसप्रकार बन्ध भावसे भिन्न स्वभावका निर्णय करने पर चैतन्यको उस बन्धभावकी वृत्तिोंका आधार नहीं रहता; अकेले आत्मा का ही आधार रहता है। ऐसे स्वाश्रयपनेकी स्वीकृतिमें चैतन्यका अनन्त वीर्य पाया है। अपनी प्रज्ञाशक्तिके द्वारा जिसने चन्ध रहित स्वभावका निर्णय किया उसे स्वभावकी रुचि उत्साह और प्रमोद आता है कि अहो । यह चैतन्य स्वभाव स्वयं भव रहित है, मैंने उसका आश्रय किया इससे अब मेरे भवका अन्त निकट आगया है और मुक्ति दशाको नौवत बज रही है। अपने निर्णयसे जो चैतन्य स्वभावमें निःशंकता करे उसे चैतन्य प्रदेशोंमें उल्लास होता है, और अल्पकालमें मुक्त दशा होती ही है। (श्री समयसार-मोक्ष अधिकारके व्याख्यानमें से)...
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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