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(१३४) ॥सीताजीकी धीज ।। लावणी-खडीराहमे ॥ अमरलोकसेआये विबुद्ध जबासांचझूटकीवादपडी॥ धीजकरणकोअमिकुंडपरासीतासतपर आनखडी। टेर सीता के सिर दोष चडाया ।बात फैलगइ गली गली॥ पडाभरमजब रामचन्द्रको जिकरआइजवचलीचली।। दूधके अंदरनिमकपडेज्यों।दुशमनाईकरीमिलीमिली।। सत्त सहाइ हुवा देवता । फिरतो बनेगा भली भली॥ झेला-जब रामचन्द्रजी हुकम ऐसा देदीना ।
सीताको करो बनवास खास यह कहना ॥ जब हाथ जोड कहे लक्ष्मणजी यों बेना ।
होवे सीताका कोइ बाँक मुझे कह देना॥ मिलत-रामचन्द्र चड गये हट्टपर ।
विप्त सीताके सिर पड़ी ॥ धीज ॥१॥ शाम वैस और शाम रथमें । बेठा सीताको लेगया ॥ नरनारी नगरी के कहते । देखो कैसा जुलम किया।