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(९६) भरा रहता था दरबार पार नहीं आता ॥ दिन रेन विषय में रहते रंगभर राता। ले गया उनको भी काल पार नहीं पाता ॥ धरा रहा उन्होंका ठाठ राजका कीना॥ तेरा ॥२॥ जब उडेहंस समुदरको सूखा देखी। कहा रहा नाम निशान जक्तमें एकी ॥ केइ दुवा तखत मालिक अलीजा लेखी। बने दुर्गतीके मिजमान जो करते सेखी ॥ ऐसे करो अक्कलमें गौर हुवे परवीना ॥तेरा ॥ ३ ॥ यह स्वार्थका संसार लजन परिवारे ॥ ममताकी पोट क्यों धरतें शिर तुम्हारे ॥ सद्गुरुकी सीख तूं मान मानरे प्यारे। यह दया धर्म दिल धार पार उतारे । हीरालाल कहे ऐसे होवो ज्ञानके भीना।।तेरा ॥४॥