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जेन पूजा पाठ सग्रह
तैं करम पूरव किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति क्रोध- अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥१॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अघं निर्वपामीति स्वाहा ।
मान महाविषरूप, करहिं नीच-गति जगतमें । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥२॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करनको कौन ठिकाना । बस्यो निगोदमाहितें आया, दमरी रूकन भाग विकाया ॥ रुकन विकाया भागवशर्तें, देव इकइन्द्री भया । उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ों में गया ॥ जीतव्य - जोवन - धन- गुमान, कहा करे नल - बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन, बड़े जनकी, ज्ञानका पावै उदा ||२||
ॐ ह्रीं उत्तममादंवधर्माज्ञाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
कपट न कीजै कोय, चोरनके पुरु
सरल सुभावी होय, उत्तम आर्जव - रीति बखानी, मन में होय सो वचन उचरिये, करिये सरल तिहुँजोग अपने, सुख करै जैसा लखे तैसा, नहिं लहे लक्ष्मी अधिक छल करि, अय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा
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ॐ ह्रीं उत्तम आर्जवधर्माङ्गाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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ना बसे ।
घर बहु संपदा ॥३॥ रंचक दगा बहुत दुखदानी | वचन होय सो तनसौं करिये ॥ देख निरमल आरसी । कपट प्रीति अंगारसी ॥
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ताके
करम-बन्ध-विशेषता । नहिं देखता ॥ ३ ॥