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________________ 65 आख्यायिका कहलाती है। यहां पर आख्यायिका गयमय न होकर गध से युक्त होती है, ऐता जो कहा गया है, उसमें हेमचन्द्र का युक्त के ग्रहप से तात्पर्य यह है कि यदि आख्यायिका के बीच - बीच में अत्यल्प रूप से पद्य का निबन्धन हो जाय तो इसते आख्यायिका दूषित नहीं होगी, जैते - बापविर चित हर्षचरित। वाग्भट - द्वितीय आख्यायिका में मिनादि के मुख से वृतान्त कहलाने की छूट देते है तथा बीच-बीच में पद्य रचना को आवश्यक मानते हैं। शेष बातें प्रामह-सम्मत ही उन्हें मान्य हैं। इस प्रकार जैनाचार्य प्रायः भामहसमर्थक है। कथा : कथा में सामान्यत: कविकल्पनापसत वर्पन किया जाता है। भामह के अनुसार इसकी रचना संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में होती है, इसमें वक्त्र तथा अपरवक्त्र नामक छन्दों तथा उच्छवासों का अभाव होता है। 1. नायकाख्यातस्ववृत्ता भाव्यर्थशंसिवक्त्रादिःसोच्छवाता संस्कृता गद्ययुक्ताख्यायिका। काप्यानुशासन, 8/7 2. काव्यानु, 8/7 3. तत्र नायिकाख्यातस्ववृत्तान्ताभाव्यतिनीसोच्छवासा कन्यका पहारसमागमाभ्युदयभाषिता मिदिमख्याख्यातवृत्तान्ता अन्तरान्तराप्रविरलपघबन्धा आख्यायिका। काप्यानु वाग्मट, पृ. 16
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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