SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो पकारों का निरूपप करके ज्य तथा पद्य के भी रचनानुसार अनेक प्रभेद किये। उन्होंने प्राचीन कवियो की "गचं कवीनां निकष वदन्ति" यह उक्ति देकर गद्य को प्राथमिन्ता दी तथा गध-पप रूप काव्य के भी दो भेद किये - प्रबन्ध तथा मुक्तक2 । उन्होंने प्रबन्धकाव्यों में दस प्रकार के रूपक नाटकादि को श्रेष्ठ बतलाते हुए कहा - "सन्दर्भेषु दशरूपकं प्रेय :- 3 आचार्य दण्डी ने “ग” तथा “पय" नामक दो काव्य - मेदों में "मित्र" नामक तीसरा भेद और जोड़ दिया।' उन्होंने गद्य-पय मिश्रित नाटकों का काव्य में अन्तर्भाव करने के लिये "मित्र' नामक काव्य-भेद की उदभावना की, यद्यपि प्राचीनकाल मे ही भरतमुनि नाटक को "काव्य" बता चुके भामह तथा दण्डी ने भाषा के आधार पर भी काव्य के तीन भेद किये - संस्कृत काव्य 2. प्राकृत काव्य 3 अपभंश काव्य। 1. काव्यं गई पचंच, काव्यालंकारसत्र 1.3-21 2. तदनिब्द्धं निबद्धंच __वही, 1.327 3. वही, 1. 3. 30 4. काव्यादर्श 1/11
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy