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________________ इसी प्रकार आचार्य भावदेवतरि - सहदयों के लिये इष्ट, दोष - रहित, सद्गुपों तथा अलंकारों से युक्त शब्दार्थ - समूह को काव्य मानते हैं।' इस काव्य - स्वरूप के मल में भी आ. मम्मट के काव्य-लक्षप की ही भावना प्रधान है। इस प्रकार इन क्त समस्त जैनाचार्यों ने काव्य- स्वरूप में प्रारम्भ से चली आई परम्परा को अधुण्प बनाये रखने का सफल प्रयास किया है तथा काव्य-स्वरूप पर विभिन्न दष्टिकोपों से विचार कर कतिपय नवीन तथ्यों का समावेश करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया है। काव्य-भेद काव्य के भेद - प्रभेदों पर प्राचीनकाल से ही विचार किया जाता रहा है।भामहाचार्य ने काव्य के दो भेद किये थे - गय काव्य तथा पघ काव्य। उन्होंने वृत्तबन्ध तथा अवृत्तबन्ध दो प्रकार की रचना की द्वष्टि से ये भेद किये थे। रीतिवादी आचार्य दामन ने भी काव्य के इन 1. शब्दार्थों च भवेत काव्यं तौ व निर्देष सद्गपौ। सालंकारी सता मिष्टावत एतन्निरूप्यते काव्यालंकारसार - 1/5
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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