SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 काव्यालंकारमार काव्यालंकारसार नामक गन्य की रचना आ.भावदेवतरि ने पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में की।' इस पद्यात्मक कृति के प्रथम पध में इसका "काव्यालंकारसंकलना* , प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में "अलंकारतार और आठवें अध्याय के अंतिम पद्य में "अलंका रसंगह' नाम से उल्लेख किया गया है। यह ग्रन्थ संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण है। इसमें आचार्य ने प्राचीन ग्रन्थों से सारभूत तत्वों को गृहप कर संगहीत किया है। 2 आठ अध्यायो में विभक्त इस गन्य की विषयवस्तु इस प्रकार है - प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु तथा काव्य-स्वरूप का निरूपण किया गया है। ___द्वितीय अध्याय में, मुख्य लाक्षपिक तथा व्यंजक नामक तीन शब्द-भेद, उनके लक्षपा तथा व्यंजना नामक तीन अर्थमद तथा वाच्य, लक्ष्य तथा व्यंग्य नामक तीन व्यापारों का संक्षेप में विवेचन किया गया है। तृतीय अध्याय में, श्रुतिक्टु, च्युतसंस्कृति आदि 32 पद - दोषों का निरूपप किया गया है। ये 32 दोष वाक्य के भी होते हैं। तत्पश्चात अपुष्टार्थकष्टादि आठ अर्थदोषों का नामोल्लेख कर किंचित विवेचन किया गया है। 1. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग 5, पृ. ।।१ 2. आचार्य मावदेवेन प्राच्यशास्त्र महोदधेः आदाय साररत्नानि कृतोऽलंकारसंगह: 8/8 काव्यालंका रसार, 8/8
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy