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________________ 43 स्पष्ट उल्लेख किया गया है, अत: यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त गन्यों के रचयिता मावदेवसरि ही होंगे। अगर चन्दनाहटा के एक लेख से ज्ञात होता है कि भावदेवतरि पर एक रात की रचना की गई। रात में यह कधित है कि सं0 1604 में भावदेवसरि को प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त उक्त लेख से यह भी विदित होता है कि अनूप संस्कृत लाइबेरी से सरि जी के शिष्य मालदेव रचित “कल्पान्तर्वाच्य नामक गन्य की प्रति उपलब्ध है जिसकी रचना सं0 1612 या ।4 में की गई है, उसकी प्रशस्ति के एक पध में "कालकाचरित' का उल्लेख है इत्यादि। उक्त रास के नायक भावदेवतरि को सं0 1604 में प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी तथा पार्श्वनाथ चरित' के रचयिता भावदेवसरि ने "पापर्व नाथ चरित' की रचना सं0 1412 में की है। इन दोनों तिथियों में पर्याप्त अन्तराल है। अत: उक्त दोनों आचार्यो को एक ही मानना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है। संभवत : प्रशस्ति बाद में जोड़ी गई हो तथा लिपिकार ने भावदेवतरि की प्रसिद्धि के कारण प्रमा दवशात का लायरित का उल्लेख करने वाले उक्त पपं का समावेश कर दिया हो। 1. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान पृ. ५५ ते उत्त 2. तत्यादपामधुपा:---स्वर्गाः पत्र्ये । जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग 14, किरण 2, पृ:38
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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