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के कमश: संक्षिप्ति, अवपात, वस्तूत्थापन और सम्पेट चार अंग स्वीकार किये हैं।
उक्त वृत्तियां रस भाव व अभिनय का अनुसरप करती हैं। अस्तु निष्कर्षत: यह कहना सम्यक् प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों ने जहाँ काव्यशास्त्रीय तत्वों का सम गरूपेण विस्तृत विवेचन किया है वही नाट्यसम्बन्धी तत्वों का ही न केवल काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में समावेश किया है अपितु नाट्यशास्त्रीय स्वतंत्र गन्यों का भी प्रचलन किया है। इनमें वर्णित समग तत्व मरत-परंपरा के अनुगामी होने के . साथ ही साथ जैनाचार्यों की अपनी मौलिक विचारधारा से भी अनुप्राणित हैं। फलत: इनते काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों को एक नतन दिशा प्राप्त हुई है जो निश्चित ही जैनाचार्यों के महनीय योगदान की सूचक
같