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________________ 389 सखियों द्वारा पार्वती से किया गया परिहास पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन...... इत्यादि नर्मवाक् परिहास है।' आरटी वृत्ति : आरटी वृत्ति का लक्षण करते हुए आ. रामचन्द्रगुणचन्द्र लिखते हैं कि अनृतभाषप, छल-पञ्च, द्वन्द्वयुद्ध तथा(रौदा दि) दीप्तरतों से युक्त (वृत्ति)आरमटी कहलाती है।2। इसी को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं कि “आर" अर्थात चाबुक ( अंकुशा ) के समान प्रहार करने वाले उद्धत पुरूष आरभट कहे जाते हैं और ये आरभेट जिस व्यापार मे संलग्न हो, वह आरटी' वृत्ति है। यह वीरों के क्रोधावेग, असत्यभाषप, प्रपंच, छल-जप, माया-इन्द्रजालादि के वर्णन तथा रौद्रादि-दीप्तरसों में प्रयुक्त होती है। यह का यिक, वाचिक व मानसिक सब प्रकार के अभिनयों से युक्त होती है। भरत तथा धनंजय आदि नाट्याचार्यो ने आरभटी के 1. वही, पृ. 287 2. आरमटपनत - द्वन्द्व--दीप्तरता न्किता।। वही, 3/6 3. वही, विवृति, पृ. 288 + हि. नाट्यदर्पप, वृत्ति, पृ. 288 5. वही, वृत्ति , पृ. 289
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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