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अन्य नायक : दशरूपककार ने मुख्य नायक के अतिरिक्त पताका नायक (जिसे "पीठमर्द' कहते हैं), गोप नायक (पताका व प्रकरी नायक) व प्रतिनायक मेद स्वीकार किये हैं।
जैनाचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्र ने भी इन्हीं का अनुसरप किया है। उनके अनुसार मुख्य नायक की अपेक्षा कुछ कम कथाभाग वाला अमुख्य नायक कहलाता है।' प्रधान फल की अपेक्षा अवान्तर अमुख्य फल का पात्र होने से इते 'अमुख्य कहा गया है। तथा बहुत बड़े कथाभाग में व्यापक होने से तथा नायक के सहायक के रूप में होने से उसका नायकत्व होता है।2 जैनाचार्य वाग्भट द्वितीय ने नायक के गुपों से युक्त तथा नायक के अनुचर को पीठमद कहा है।
प्रतिनायक : काव्य में नायक के पश्चात सर्वाधिक प्रभावशाली पात्र प्रतिनायक होता है नायक की भांति यह भी सम्पूर्ण कथावस्तु में आद्योपान्त दृष्टिगोचर होता है। नायक का प्रतिद्वन्दी होने से यह उसकी अभीष्ट सिद्धि में पदे-पदे बाधक बनता है और नायक को सक्रिय बनाये रहता है। व्यावस्तु को आगे बढ़ाने में उसकी भूमिका अपरिहार्य है। धनंजय के लक्षप के समान आ. हेमचन्द्र ने भी प्रतिनायक का स्वरूप प्रस्तुत किया है - "व्यसनी पापकृल्लुब्धः स्तब्धो धीरोद्तः प्रतिनायक: " अर्थात व्यसनी, पापी,
1. अमुख्यो नायक : किंचनवृत्तोडगथनायकात।
हि. नाट्यदर्पप, 4/13 पूर्वार्द 2. वही, विवृत्ति, पृ. 375 3. काव्यानु. वाग्भट, पृ. 62 + तुल0- "लुब्धो धीरोद्तः स्तब्धः पापकृदव्यसनी रिपुः।
दारूपक 2/9