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________________ 341 प्रायः सभी आचार्यों ने अर्थालंकारों के वन - प्रसंग में, उपमा को अर्थालंकारों का मूल स्वीकार करते हुए सर्वप्रथम उती पर विचार किया है पर आ. नरेन्द्रप्रमतरि ने सर्वप्रथम अतिशयोक्ति का विवेचन किया है तथा उते ही समस्त अलंकारों का प्रापभत कहा है।' जैनाचार्य वाग्भट - द्वितीय ने 63 अर्थालंकारों का विवेचन किया है - जाति, उपमा, उत्प्रेधा, रूपक, दीपक, सहोक्ति, आषेप, विरोध, अर्थान्तरन्यास, घ्याजस्तुति, व्यतिरेक, ससन्देह, अपझुति, परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति, भान्ति, विषम, सम, समुच्चय, अन्य, अपर, परिसंख्या, कारपमाला, निदर्शन, एकावली, यथासंख्य, परिकर, उदात्त, समाहित, विभावना, अन्योन्य, मी लित, विशेष, पूर्व, हेतु, सार, हम, लेश, प्रतीप, पिहित, व्याघात, असंगति, अहेतु, श्लेष, मत, उत्तर, उमयन्यास, भाव, पर्याय, व्यापोक्ति, अधिक, प्रत्यनीक, अनन्वय, तद्गप, अतटूगुप, संकर और आशीः। इन अलंकारों की गफ्ना करने के पश्चात अन्त में आ. वाग्भट द्वितीय 'प्रतय : पद का प्रयोग करते हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त कुछ अन्य अलंकार भी मान्य थे, पर उन्होंने उनका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। आ. मम्मट द्वारा कथित - उपमेयोपमा, प्रतिवस्तुपमा - - - 1. सर्वालंकारचतन्यमतत्वात प्रथममतिश्योक्ति विशेषतो लक्ष्यति। अलंकारमहोदधि, पृ. 227 2. काव्यानु - वाग्भट, पृ. 32 3 आभीः प्रायोऽलिकारा। वही, पृ. 32
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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