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________________ 325 किया है। आ.भावदेवतरि ने भी इन्हीं छ: शब्दालंकारों को स्वीकार किया संक्षेप में, जैनाचार्यों द्वारा किये गये उक्त शब्दालंकार विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि आचार्य वाग्भट प्रथम ने केवल चित्र, वक्रोक्ति, अनुपात और यमक - इन चार अलंकारों को शब्दालंकार माना है। हेमचन्द्राचार्य, आ. नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय और भावदेवसरि ने - प्रलेष तथा पुनरूक्तवदाभास - इन दो अन्य अलंकारों को उपरोक्त चार अलंकारों में समाविष्ट कर : शब्दालंकारों को स्वीकार किया है। आ. वाग्भट प्रथम ने पुनरूक्तवदामास का उल्लेख ही नहीं किया है तथा प्रलेष को अर्थालंकार माना है। आ. हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रमतरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवसरि ने श्लेष को शब्दालंकार व अर्थालंकार दोनों स्वीकार किया है। अर्थालंकार : अर्थालंकार वह है जहां अर्थगत चमत्कार पाया जाता है। अर्थालंकार में शब्द परिवर्तन होने पर भी अर्थ के कारप चमत्कार विद्यमान रहता है। अतः इसमें अर्थ की प्रधानता रहती है। विभिन्न आचार्यों की अलंकार सम्बन्धी धारपा में एकरूपता नहीं है। आचार्य मम्मट ने 61 प्रकार के अर्थालंकारों का विवेचन किया है -1) उपमा, (2) अनन्वय, (3) उपमेयोपमा, (4) उत्प्रेक्षा 1. चित्रश्लेषानपासवक्रोक्तियुक्तियमकपुनरूक्तवदाभासाः षट् शब्दालंकाराः। ___ कायानु., वाग्भट, पृ. 46 2. स्याद वक्रोक्तिरनुप्रासो यमकं श्लेष इत्यपि । 'निं पुनरूक्तवदाभास भब्देष्वलंकृतिः।। काव्यालकारसार,5/।
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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