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इसमें उक्त प्रकार के वर्षों का अभाव है तथा समात - रहित अनुदुत रचना होने से ओजोगुप विरुद्ध है।
138 प्रसाद - विकास का हेतु प्रसाद गुप सभी रतों में होता है। शक ईंधन में अग्नि की भांति तथा स्वच्छ जल की तरह चित्त में सहप्ता व्याप्त होने वाला तथा समस्त रतों में पाया जाने वाला प्रसाद गुप है।' प्रायः यही मत आ. मम्मट का भी है। 2 अवपमात्र से अर्थबोध कराने वाले वर्ष, समात और रचनायें प्रसाद्गुप की व्यञ्जक हैं।' यथा -
दातारो यदि कल्पशारिवभिरल यद्यर्थिनः किंतपैः। सन्तश्चेदमृतेन कि यदि लास्तत्कालक्टेन किस। किं कर्परशलाकया यदि शोःपन्थानमेति प्रिया, संसारेऽपि सतीन्द्रनालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम्।।'
1. "विकासहेतुः प्रसादः सर्वत्र। विकासः शुष्कन्धनाग्निवत्स्वजलवच्च सहसव चेत सां व्याप्तिः । सर्वत्रोति सर्वेषु रतेषा.
काव्यानुशासन, 4/7, पृ. 291 - काव्यप्रकाश 8/70 3 "इह श्रृतिमात्रेपार्थप्रत्यायका वर्पवृत्तिगुम्पाः ।। श्रुत्यैवार्थपती तिहेतवो पर्पसमासरचनाः।
काव्यानशासन 4/ पृ. 291
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वही, पृ. 192