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________________ 296 ( चमत्कारोत्पादक) होता है। मार्य के इस स्वरूप विवेचन में मम्मट का ही प्रभाव परिलक्षित होता है, परन्तु मम्मट ने मार्य को इतिहेतु के अतिरिक्त आझादस्वरूप वाला भी कहा है। साथ ही करूप, विपलभ तथा शान्त में माधुर्य को उत्तरोत्तर चमत्कारजनक कहा है। जबकि आ. हेमचन्द्र ने इस क्रम को बदलकर शान्त, करूण और विपलम्म कर दिया है। जहाँ आचार्य मम्मट ने तीनो गुपों का स्वरूप बतलाकर बाद में उसके व्यजक वर्षादि की चर्चा की है वही आ. हेमचन्द्र ने ऐसा न करके । एक-एक गुप से संबंधित समी बातों पर विचार किया है। मार्ण गुण के स्वरूप - विवेचन के बाद वे उसके व्यचकों का निरूपप करते हुए लिखते हैं कि अपने अन्तिम वर्ष से युक्त, ट वर्ग को छोड़कर अन्य सभी वर्ग, हस्व रकार तथा पकार और समातरहित (या अल्पतमान वाली) कोमल - रचना मार्य व्यजक है।' 1. शन्तकरूपविपलम्भेषु सातिश्यमा। - काव्यानुशासन, 4/3. 3 आहलादकत्वं माधुर्य अंगारे दुतिकारपस।। काव्यप्रकाश, 8/68 का उत्तरार्द 3 रूपे विप्रलम्भे तकान्ते चातिश्यन्वितम्। काव्यप्रकाश, 8/69 का पूर्वार्द + तत्र निपान्त्याकान्ता अटवर्मा वर्गा स्वान्तरितो रपावतमातो मुदरचना च। काव्यान, 4/4
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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