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________________ 295 लक्षण में व्यभिचार होने से, उच्यमान तीन ही गुपों में अन्तर्भाव होने ते या दो - परिहार के रूप में स्वीकृत होने से अन्य गुपों को नहीं माना जा सकता। अतः उनके अनुसार गुप तीन ही हैं, दस अथवा पाच नहीं।' इस सन्दर्भ में उनकी विवेक टीका अति महत्वपूर्ण है जिसमें । उन्होंने दस गुपों के अतिरिक्त पांच गुणों का उल्लेखपूर्वक खण्डन किया है जो कि उनके व्यापक अध्ययन का परिचय प्रस्तुत करता है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा स्वीकृत माधुर्य, ओज व प्रसाद गुप का विवेचन इस प्रकार है - माधुर्य - माधुर्यगुप संभोग श्रृंगार में दुति का हेतु है। अर्थात द्रुति का हेतु और संभोगश्रृंगार में रहने वाला जो धर्म है वह माधुर्य कहलाता है। दुति का अर्थ है आर्द्रता अर्थात् चित्त का द्रवीभाव। श्रृंगार के अंगभत हास्य और अद्भुत आदि रतों में भी माधुर्य गुण होता है। अत्यन्त इति का कारण होने से यह मार्थ्यगुप शान्त, करूप और विपलम्भ गार में भी अतिशययुक्त • त्रयो न तु दश पञ्च वा। लक्षपव्यभिचाराच्यमानगुफेवन्तर्भावात्। दोष्परिहारेप स्वीकृतत्वाच्या 'वही, वृत्ति , पृ. 274 इतिहेतु मार्य श्रृंगारे। काव्यान, 4/2 3 इतिरार्दता गलितत्वमिव चततः। अंगारेडातभोगे। श्रृंगारस्य च ये हास्यास्मतादयो रसा अँगा नि तेषामपि माधुर्य गपः। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 289
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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