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________________ 291 पसन्नता - जिस गुप के कारप शीघ्र पढ़ते ही अर्थावबोध हो जाता है उसे "प्रसन्नता अथवा प्रसक्ति कहते हैं।' यथा कल्पद्म इवाभाति वा सितार्थपदो जिनः। 2 यहाँ, यह कहने से कि जिनदेव कल्पतरू की भांति अभिलषित फल के देने वाले हैं उनकी दानशीलता तुरंत स्पष्ट हो जाती है। अत: यहाँ पर प्रसन्नता नामक गुण है। समाधि - जहाँ पर एक वस्तु के गुप का आधान अन्य वस्तु के साथ किया जाता है, वहाँ समाधि नामक गुप होता है।' यथा - यथाश्रुभिररिस्त्रीपा राज : पल्लवित यशः।।* 1. अटित्यार्पकत्वं यत्प्रसप्तिः सोच्यते बुधैः। ____3/10 का पूर्वार्द 2. वही, 3/10 का उत्तराई 3 स समाधिर्यदन्यत्य गुपोऽन्यत्र निवेश्यते। __ वही, 3/n का पूर्वार्ट ५. वही, /॥ का उत्तरार्द्ध
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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