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________________ यथा गन्भविमा जितधाम लक्ष्मीलीलाम्बकत्रम्पात्य राज्यस्। क्रीडागिरी रेवतके तपांति श्रीनेमिनायोऽत्र घिर चकार।।' इस लोक में चास्तापत्यायक 'गन्ध' शब्द के साथ अन्य सुन्दर पद "इम', लीलाम्छुज शब्द के साथ "त्र और कीडा शब्द के साथ 'गिरीद अर्थ में चारुता का आधान करते हैं। अतः इसमें औदार्य नामक गुण है। समता और कान्ति - रचना की अविषमता (अनकलता) समता है तथा रचना की उज्जवलता कान्ति समता, यथा - कुचकलशविता रिस्फारलावण्यधारामनुवदति यदंगासंगिनी हारवल्ली। असदभमहिमा तामनन्योपमेयां कथय क्यमई ते चेतति व्यस्यामि।।' यहाँ पर 'कुचके साथ कलश, वितारि के साथ फार आदि अविषम पदों का प्रयोग होने से समता गुप है। 1. वाग्भटालंकार, 3/4 - बन्यस्य यदवैषम्यं समता सोच्यते बुधः। यदुज्जवलत्वं तस्येव सा कान्तिरक्षिा यथा।। वही, 3/5 3 दही, 3/6
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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