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________________ 273 सीता की विपत्ति को सुनने पर रामचन्द्र के बार - बार करूप विलापादि का अधिक्य।। १४ अपोष अर्थात - मुख्य रस की पुष्टि का अभाव होने पर यह रसदोष होता है, यथा - "वीभत्ता विषया...12 इत्यादि उदाहरपा यह अपरिपोष (1) प्रधान रस का अथवा (2) मुक्तकों में स्वतंत्र रूप से वर्पित का होता है। अंगभूत का अपरिपोष दोष नहीं होता है। 148 मुख्य रत का आवश्यकता से अधिक विस्तार - "अत्युक्ति" नामक रसदोष कहलाता है। जैसे - कुमारसंभव में रति के विलाप में। 358 “अङ्गिभित' अर्थात् प्रधान रस को भुला देना रस का अपरिपोष जनक "अङ्गिभित" नामक दोष कहलाता है। जैसे - रत्नावली के के चतुर्थ अंक में बाभव्य के आगमन पर सागरिका की विस्मृति।' नाट्य दर्पपकार का कथन है कि उक्त 5 दोषों में से प्रथम अनौचित्य को छोड़कर अंगों की उग्रता आदि शेष चारों दोष यथार्य में अनौचित्य के • वही, पृ. 326-27 2. वही, पृ. 327 3 वही, पृ. 327-328 + वही, पृ. 328
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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