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वीरादि रसों के प्रकर्य का वर्णन मी अनुचित होने से प्रकृति विपर्यय नामक रसदोष में आता है।
कहीं वर्षों तथा समासों का रस के विपरीत रूप में अन्यथा प्रयोग
भी रसदोष है।
न कहीं उत्तम प्रकृति के नायक की उत्तम नायिका के प्रति व्यभिचार
संभावना भी अनौचित्य मानी जाती है।
ट! कहीं नायिका के पामहारादि से नायक के कोप का वर्पन करना
भी अनौचित्य है।
६ कहीं आयु, वेष, देश, काल, अवस्था तथा व्यवहारादि का
अन्यथा वर्पन भी अनौचित्य माना जाता है।
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यमक, इसी प्रकार अनुचितरूप से प्रयुक्त घलेष, चित्र, ऋतु, समुद्रादि, सूर्य तथा चन्द्र के उदयास्तादि जो कि रस के अंग नहीं है उनके प्रकर्ष का वर्णन मी अनौचित्य है।'
अङ्गों की उगता - अर्थात मुख्य रस के पोषक होने से अवयव रूप
की उगता अत्यन्त विस्तार के कारण उत्कट हो जाना भी दोष है। ___ जैसे - कृत्यारावप में जटायु के वध, लक्ष्मप के शक्ति लगने और सीता
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नाट्यदर्पण, पृ. 324-326