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________________ 258 1165 परिख़त्त - अनियम - "परिवृत्तोऽनियमो नियमेन" अर्थात जिसका नियमपूर्वक कथन उचित न हो किन्तु सनियम कथन हो तो उक्त दोष होता है। यथा - वक्त्राम्भोजं सरस्वत्यधिवसति सदा शोष एवाधरस्ते, बाहुः काकुत्सथवीर्यस्मृतिकरपपटुर्दधिपस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पाश्र्वमता: धपमपि भवतो नैव मुञ्चत्य भीक्षणं स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन्कथमवनिपते! तेऽम्बुपाना भिलाषः ।।' यह शोप यह अनियम वाच्य होने पर “शोप एव" यह नियम कहा है। अतः परिवृत्त - अनियम दोष है। 1178 परिवृत्त - सामान्य - "परिवृत्तं सामान्य विशेषण" अर्थात सामान्य की अपेक्षा विशेष वाचक शब्द का प्रयोग करना, यथा - कल्लोलवेल्लितदृषत्परूष्पहारैः . रत्नान्यमनि मकराकर] मावमंस्थाः । कि कौस्तभेन विहितो भवतो न नाम, याश्याप्रसारितकरः पुरुषोत्तमोऽपि।।2 यहाँ "एकेन किं न विहितो भवतः स नाम इस सामान्य के वाच्य होने पर "कौस्तुभेन' इस विशेष का क्यन होने से परिवृत्त सामान्य दोष है। 1. वही, पृ. 271-72 - वही, पृ. 272
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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