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________________ अर्थात जिन कवि - रूचियों के प्रतिभारूप प्रभावों के मध्य में बहुत मार्गवा सुकुमार, विचित्र और मध्यम रूप मार्गत्रय वाली सरस्वती चमत्कारपूर्वक प्रवाहित होती रहती है, वे कविरूचियां सर्गबन्ध लक्षण रूप महाकाव्याकाश में परिचयगत होकर दृश्य काव्य की भांति कैसे प्रसन्नता उत्पन्न करा सकती है' ? तथा जिन सूर्यप्रभाओं के मध्य में त्रिपथगा प्रवाहित होती है, वे आदित्य प्रभाएं मेघ से परिचित होने वाली कैसे प्रसन्न हो सकती है ? इस प्रकार यहाँ पर दृश्य काव्य की अपेक्षा महाकाव्य की रचना कठिन होती है। इस अर्थ की प्रतीति बहुत कठिनाई से होती है, अतः कष्टत्व दोष है। $28 अपुष्टार्थता – “प्रकृतानुपयोगोऽपुष्टार्थत्वम्" अर्थात् प्रकृति में अनुपयोगी होना । यथा - तमालश्यामलं क्षारमत्यच्छमतिफेनिलम् । फालेन लंघयामास हनूमानेष सागरम् । । यहाँ " तमालश्यामल" आदि के ग्रहण न करने पर भी प्रकृत अर्थ की प्रतीति में कोई बाधा न होने से उक्त दोष है। 249 138 घातक होना व्याहतत्व दोष कहलाता है । व्याहत - * पूर्वापरव्याघातो व्याहतत्वं" अर्थात् पूर्वापर अर्थ का 1. वही, पृ. 261
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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