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नरेन्द्रप्रमसरि ने 23 वाक्यदोषों का उल्लेख किया है -
।। रसायनुचिताधर, (2) लुप्त-विसन्ति, (3) ध्वस्त-विसर्गान्त, (4) इष्ट सम्बन्धवंचित, (अनन्वित अथवा अभवन्मत सम्बन्ध ),(5) समाप्तपुनरारब्धता, ( 6 ) भग्नपक्रमता, (7) अकमता, (8) न्यूनपदता, (१) अन्तिरस्थैकपदता, (10 संकीर्पता, (II) गर्भितता, (12) दुर्वृत्तता, (13) सन्धिविश्लेषता, (14)तन्धिकष्टता, (15) सन्धिमलीलता, (16) अनिष्टान्यार्थ, (17) अस्त्यान-समा सदुःस्त्यित, (18) अस्थानपद दुःस्थित, (19) पतत्प्रकर्ष, (20) अप्रोक्तवाच्य, (21) त्यक्तपसिदि, (22) पुनरूक्तपदन्यास और (23) अतिरिक्तपदता ।
यहाँ नरेन्द्रप्रभसरि ने मम्मटाचार्य सम्मत 21 वाक्यदोषों को ही स्वीकार किया है। कि नरेन्द्रप्रभसरि ने विसन्धि के तीन भेदों की पृथक-पृथक् गफ्ना की है, अत: इनके अनुसार वाक्य-दोषों की संख्या 23 हो जाती है, मलता दोनों में अभिन्नता है। हेमचन्द्राचार्य ने जिन 13 वाक्यदोर्षों का उल्लेख किया है, उनमें लुप्तविसर्ग तथा ध्वस्तविसर्ग को उन्होंने अविसर्गता के अन्तर्गत ही माना है तथा विसन्धि के तीन भेदों को पृथक्-पृथक् न मानकर केवल एक ही भेद माना है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र के प्रसंग में 13 वाक्य-दोषों (अविसर्ग के दो तथा विसन्धि के तीन भेदों सहित६)दोषों का विवेचन तो पहले ही किया
।. अलंकारमहोदधि, 5/2-6