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हतत्तता - यह दोष पाँच प्रकार से संभव है - (!) छन्दःशास्त्र के लक्षप से रहित, (2 ) यतिभष्ट, (3) लक्षप का अनुसरप करने पर भी अग्रव्य, (4) अन्त लघु के गुरुभाव को प्राप्त न होना और (5) रसानुकल छन्द न होना।
छन्दःशास्त्रलक्षपरहित, यथा -
“अयि पश्यसि सौधमाश्रितामविरलसमतो मालभारिपीम।
यहाँ वैतालीय छन्द के युग्म पाद में छः लघु अक्षरों का निरन्तर प्रयोग निषिद होने से लक्षणहीन हतवृत्तता है। इसी प्रकार अन्य चार प्रकारों के भी दृष्टान्त हेमचन्द्राचार्य नेदिये हैं।'
1108 संकीर्पता - एक वाक्य के पदों का दूसरे वाक्य के पदों में मिल जाना।
यथा
कायं वायइ पुडिओ करं घल्लेइ निब्रं रूठो । सुष्यं गेहई कण्ठे हक्केइ अ नत्तिों थेरो ।।2
यहाँ "काकं- क्षिपति कर बादति कण्ठे नप्तारं गृह्णाति पवानं मेषयति" इस प्रकार कहना उचित था। उक्ति प्रत्युक्ति में यह दोष कहीं - कहीं गुप हो जाता है। जैसे -"बाले, नाथ, विमय मानिनि" इत्यादि ।
1. वही, वृत्ति , पृ. 214 - 215 2. वहीं, वृत्ति , पृ. 215 3 वही, वृत्ति पृ. 215