________________
225
दोष होता है।
यथा
"ज्योत्स्नांलिम्पति चन्दनेन स पुमान् सिञ्चत्यती मालती माला गन्धनलैमधनि कुरुते स्वादन्यौ फाणितः । यस्तस्य प्रथितान गुपान प्रश्यति श्रीवीरचूडामपे - स्तारत्वं स च शापया मृगयते मुक्ताफलानामपि ।।
यहाँ "चूडामणेः' पर वाक्य समाप्त हो जाने पर तारत्वम्" इत्यादि का पंछ की तरह पुनः गृहप चमत्कारोत्पादक नहीं है।' यह कहीं - कहीं न गुप होता है न दोष। जैसे - "प्रागप्राप्त' इत्यादि उदाहरपार
388 अवितर्गता - उत्वादि के द्वारा रकार का लोप होने तथा विसर्ग का
लोप प्राप्त होने पर विसर्ग का जो अभाव होता है उत्ते अविसर्गता दोष कहते हैं।
यथा
"वीरो विनीतो निपुपो वराकारो नृपोत्रप्सः । यस्य भृत्या बलोसिक्ता मस्ता बदिप्रभानियताः ।।
यहाँ पर प्रथम पंक्ति में विसर्ग का लोप हो पाने से लुप्तवितर्गता और दितीय पंक्ति में विसर्ग का “ओ हो जाने से उपहतवितर्गता दोष है ।
• वही, वृत्ति , पृ. 213 2. वही, वृत्ति , पृ. 214 3 वही, वृत्ति , पृ. 214 + वही, वृत्ति , पृ, 214